मंगलवार, 27 मार्च 2012

शब्द बोलते हैं...


मेरे कलम की स्याही सूख गयी है... लिखना संभव नहीं है, अभी बहुत कुछ यहाँ वहाँ का सोच समझ रहे हैं... शब्द कहते हैं- रुको थोड़ा ठहरो... हमें ज़रा भीतर की हलचल महसूसने दो, लिख जाओगी हमें तो फिर हम बाहर के हो जायेंगे... वहाँ तुम्हें या तुम्हारे शब्दों को समझने वाला कोई नहीं होगा...!
शब्दों को भी दुनिया की भीड़ में अर्थ सहित खो जाने का डर है... क्यूंकि भाषा बदल गयी है... आचरण के व्याकरण बदल गए हैं... संवेदना का कोई सोता चिरायु होने का दावा नहीं करता... हर ओर प्रभाव का गणित काम करता है...; ऐसे में सरल सहज सरिता सी बहने वाली कलम का सूखना स्वाभाविक ही है...

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फिर एक आवाज़ वहीँ कहीं भीतर से, शब्द ही बोल रहे हैं फिर से... पर कुछ अलग सा स्वर है... किनारों पर किरणें चमक रही हैं और आस विश्वास के साथ अक्षर अक्षर आपस में मिल कर कुछ बुन रहे हैं... प्रकाश के झालर सा कुछ! यह लटकेगा दरवाज़े पर और जीवन की राह रौशन हो जायेगी...
कहते हैं शब्द- बुनो तुम भी एक ऐसा प्रकाश वृत्त जहां अँधेरा हो भी तो प्रकाश की सम्भावना से इनकार न हो...
स्याही का रंग जो भी हो, लिखे वह केवल उज्जवल प्रतिमान, जिससे निराश ज़िन्दगी उसतक जाकर अपने लिए मुट्ठी भर सवेरा उठा ले और वह चले तो सुनाई दे ऐसी पदचाप जो कलम को पुनः नयी उर्जा से भर दे!
ये होगा न सुन्दर सहज अन्योन्याश्रित सम्बन्ध!

5 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों के अपने भाव होते हैं..वो सोचते हैं..आत्ममंथन करते हैं ....फिर बोलते हैं
    आस्तित्व की लड़ाई तो हर कोई लड़ रहा है..शब्दों को भी लड़ना होगा..न जाने कितनी जनजातीय भाषाएँ ....केवल भारत की ही नहीं वरन समूचे विश्व में जहाँ कहीं भी ये जनजातियां निवास करती हैं, विलुप्त हो रही हैं...इसलिए जरूरी है कि अब शब्द कुछ अविस्मरणीय भावों के साथ जन्म लें और जन्म-जन्मांतर तक लोगों के जेहन में जिन्दा रहे...

    अच्छी भावाव्यक्ति

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  2. कल 11/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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